Sunday 17 March 2013

पागल की पाती 
                                    
मेरे भगवान l
होकर भी पास क्यों इतनी दूरी है ?
शायद छिपकर रहना तेरी मज़बूरी है l

कहते हैं तू कण-कण में है 
हर ओर हर जगह तेरे हस्ताक्षर हैं |
पर अब आदमी पढ़ा लिखा है 
केवल चेकों और नोटों के 
हस्ताक्षर समझ में आते हैं |

सब पर तू कृपा करता है,
सबसे तू प्यार करता है,
सिर्फ आदमी से तू डरता है |
शायद इसीलिए आजकल तू 
अपनी तस्वीर में नहीं 
कहीं और ही रहता है |

तूने ही बनाया आदमी
तूने  ही बनाया मन ,
और अब ये मनवाला आदमी 
मनन नहीं करता है 
बस मनी से प्यार करता है |
तो तुम क्यों रूठे हो?



क्या करे आदमी ? उसकी भी मज़बूरी है 
जीने के लिए बहुत सारा पैसा ज़रूरी है
तुम तो पता नहीं दूर कहाँ बैठे हो?
और जहाँ बैठे हो, क्षितिज के उस पार
या कैलाश पर, जहाँ नहीं बैंक और बाज़ार l
तुम्हारे फूलों और इन्द्रधनुष के रंग
अब नज़र नहीं आते हैं l
यहाँ तो केवल गाँधीजी के
नीले और गुलाबी रंग भाते हैं

गुलाबी होते ही गाँधी और प्यारे हो गए l
पहले शायद कम थे अब आँखों के तारे हो गए l
बहुत दिन हो गए श्याम वर्ण में
अब तुम भी थोडा रंग बदलो l
परिवर्तन तुम्हारा ही बनाया नियम है
अब तुम भी थोडा ढंग बदलो l

कह दो अब मंदिर आने वालों को,
प्रसाद और फूल की जगह
गुलाबी रंग के गाँधी दिए जायेंगे l
सपरिवार आने वालों को 
सभी रंगों के गाँधी दिए जायेंगे l
फिर देखो सारे के सारे धार्मिक बन जायेंगे,
बच्चे, बूढ़े, जवान सब वहीँ नज़र आयेंगे l

मेरी मानो तो अपना style बदल दो ,
वरना future unsecure है !

होटलों ,सिनेमा ,बार का ये दौर ,
हिंसा और क्रोध यहाँ
प्रेम का नहीं जोर ,
लालच भरे अतृप्त मनों में  
अब तुम्हारे लिए कहाँ ठौर ?
सोच लो, बाद में पछताओगे l
अपमानित होते घर के बूढों की तरह
तुम भी इंतजार करते रह जाओगे l

हे अंतर्यामी !
सब कुछ जानते हो ,
फिर क्यों नहीं मानते हो ?
की अब कभी कभार ,
कोई एकाध ही कहेगा
- तमसो माँ ज्योतिर्गमय
 असतो माँ सद्गमय -
तेरे प्रकाश और सत्य की बातें अब है नहीं सुहाती ,
जगे चेतना ऐसी आवाजें अब भी हैं आती l
लेकिन ऐसी बातें मन को नहीं किसी के भाती,
कितनी मदिराएँ हैं जग में, दे आवाज बुलाती l
ऐसे में कोई पागल ही लिखे तुझको पाती                                                                             
देख के ऐसा हाल ये अँखियाँ अँसुवन से भर जाती ll